श्रुतपंचमी पर्व क्यों मनाया जाता है ?
ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी का दिन जिनवाणी के लिपिबद्धरूप में प्राप्त होने से परमपावन 'श्रुतपंचमी-पर्व' के रूप में मनाया जाता है। वैसे तो श्रुत- परम्परा अनादि-अनंत है, ये जिनश्रुतरूपी गंगा तीर्थंकर- परमात्मा से निःसृत , गणधरदेव के द्वारा आत्मसात् होती हुई , सुदीर्घ आचार्य-परम्परा से प्रवाहित होती हुई भव्यजनों को प्राप्त हुई।*
'श्रुत' शब्द का क्या अर्थ है ?
'श्रुत' शब्द के तीन अर्थ हैं -- पहला अर्थ सुनना , दूसरा अर्थ क्षयोपशमरूप श्रुतज्ञान और तीसरा सबसे महत्वपूर्ण अर्थ है -- "श्रुत्वा अवधारणं श्रुतम्" अर्थात् ज्ञानियों के वचनों को सुनकर उसे जीवन में अवधारण करना 'श्रुत' है। वास्तव में यही अर्थ सत्य और प्रयोजनभूत अर्थ प्रतीत होता है।
श्रुत 'द्रव्यश्रुत' और 'भावश्रुत' के भेद से दो प्रकार हैं। द्रव्यश्रुत लिखितरूप या शब्दरूप को कहते हैं। और भावश्रुत अंतरंग में उस संबंधी बोध या ज्ञान को। जैसे आम का शब्दरूप में वाचन करना द्रव्यरूप और आम का वाचन होने पर उसके स्वाद आदि का बोध होना भावरूप।
श्रुतपंचमी-पर्व का इतिहास क्या है ?
'भगवान् महावीर स्वामी' के तीर्थंकर-काल के लगभग 683 वर्ष तक ये श्रुत-परम्परा मुख्यतः भावरूप से प्रवाहित होती रही। लेकिन काल के प्रभाव से जब जीवों की स्मरणशक्ति क्षीण होने लगी, तब 'धरसेनाचार्य' को विकल्प आया कि मेरे इस पर्याय के परिवर्तन के बाद जीवों को भगवान् के मूलवचन, आत्महितकारी-वचन सुनने को कैसे मिलेंगें ?
तब 'आंध्रप्रदेश' की 'महिमा' नगरी में हो रहे 'युग-प्रतिक्रमण' के प्रमुख 'अर्हद्बलि आचार्य' के पास दो सुयोग्य मुनिवर भेजने का समाचार भेजा। शीघ्र ही 'सुबुद्धि' और 'नरवाहन' नामक दो मुनिराज वहाँ से 'धरसेनाचार्य' के पास आये। तब 'धरसेनाचार्य' ने उनकी परीक्षा-हेतु दो मंत्र सिद्ध करने के लिये कहा। जिनमें एक मंत्र में एक मात्रा कम और एक मंत्र में एक मात्रा ज्यादा थी। साथ में ये भी कहा कि जब ये मंत्र सिद्ध होंगें, तो दो सुंदर देवियाँ प्रकट होंगी , और यदि ऐसा न हो तो अपना विवेक लगाना मेरे पास मत आना।
जब गिरनार पर्वत पर दोनों मुनिराजों ने मंत्र-सिद्धि की, तो दो देवियाँ तो प्रकट हुईं, पर उसमें से एक देवी कानी थी और एक देवी के दाँत बाहर निकले हुये थे। मुनिराज अपने तीक्ष्ण-ज्ञान से तुरंत समझ गये कि मंत्र में एक बिंदी/अनुस्वार कम है, और दूसरे मंत्र में एक मात्रा ज्यादा है, तुरंत मंत्रों को शुद्ध करके पुनः प्रयोग किया, तो दो सुंदर देवियाँ प्रकट हुई।
मंत्र की सफल-सिद्धि जानकर 'धरसेनाचार्य' बहुत प्रसन्न हुये और दोनों मुनिराजों को आगम का ज्ञान दिया। लेकिन 'धरसेनाचार्य' को ज्ञात था कि मेरी आयु पूर्ण होने वाली है , यदि ये दोनों मुनिराज मेरे पास रुके, तो कहीं गुरू-वियोग की विह्वलता से आगमज्ञान विस्मृत न हो जाये, अतः उन्हें वहाँ से बहुत दूर जाने की आज्ञा दी।
गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करते हुये वे दोनों मुनिराज तीन दिन में गिरनार पर्वत से 500 किलोमीटर दूर 'अंकलेश्वर' पहुँचे। और गुरु की आज्ञा से जिनवाणी को लिपिबद्ध करना शुरू किया।
प्राप्त-आगमज्ञान को छह- खण्डों में विभाजित किया। अभी पहला खण्ड भी पूर्ण नहीं हो पाया था कि 'सुबुद्धि मुनिराज' की तबियत बिगड़ने लगी , तब 'नरवाहन' मुनिराज ने शेष पाँच खण्डों को पूर्ण किया। जिस दिन ये ग्रंथ पूर्ण हुआ, वह दिन था 'ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी' का और वो स्थान था 'अंकलेश्वर' और वह ग्रंथ था,"षट्खंडागम" ग्रंथ पूर्ण होते ही देवों ने आकाश से पुष्प वर्षा की और चारों ओर "जयदु सुद देवता" का जयघोष होने लगा।
ग्रंथ पूर्ण होने पर "सुबुद्धि मुनिराज" की विषम-दंतपंक्ति देवों के प्रभाव से सुंदर-दंतपंक्ति में बदल गई , इसलिये उनका नाम "पुष्पदंत" प्रचलित हुआ। और ग्रंथ पूर्ण करने से "नरवाहन मुनिराज" की 'भूतजाति' के व्यंतर- देवों ने 'बलि' यानि 'पूजा' की इसलिये उनका नाम "भूतबलि" प्रचलित हुआ।
जैन धर्म में श्रुतपंचमीपर्व का महत्त्व
धन्य थी वह आचार्य-परम्परा , जो हम अज्ञानी जीवों पर इतना उपकार किया। हम कल्पना भी नहीं कर सकते , जब भयंकर जंगलों में सूखे ताड़पत्रों पर एक-एक शब्द उकेरतें होंगें। यदि आचार्यों ने ये करुणा न की होती , तो आज हम सब जीवों को ये जिनवाणी सुनने को नहीं मिलती। कैसे हम आत्महित का मार्ग प्रशस्त करते ? कौन हमें बताता कि मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? मेरा स्वरूप क्या है ? सच्चा सुख क्या है ? कहाँ मिलेगा ? -- ऐसे अनगिनत सवालों के जबाब आज हमें माँ जिनवाणी से ही प्राप्त होते हैं।
परम सौभाग्य है हमारा कि आचार्यों ने माँ जिनवाणी को चार अनुयोगों में विभाजित कर अत्यंत सरलरूप में प्रस्तुत किया। जहाँ प्रथमानुयोग हमें महापुरुषों के जीवन से परिचित करवाता है , वहीं द्रव्यानुयोग वस्तु-व्यवस्था के ज्ञान के साथ स्वयं से परिचय करवाता है , सच्चे सुख का मार्ग बताकर सुख-प्राप्ति के लिये प्रेरित करता है। जहाँ करणानुयोग ऐक्सरे की भाँति अंदर के परिणामों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है , अर्थात् किस परिणाम का क्या फल मिलेगा ? वहीं चरणानुयोग कैमरे की भाँति बाह्य-आचरण की पवित्रता की छवि प्रस्तुत करता है , और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।
श्रुतपंचमी का पावन पर्व हमें प्रेरणा देता है कि हमें माँ जिनवाणी के चारों अनुयोगों का स्वाध्याय करना चाहिये। क्योंकि चारों ही अनुयोग विविधप्रकार से मेरा स्वरूप ही बताते हैं।
आज के दिन हमें क्या करना चाहिए ?
आज का ये पावन दिन एक संकल्प लेने का दिन है , इस अमूल्य मनुष्यभव को सार्थक करने का दिन है। हमें प्रेरणा देता है कि हे आत्मन् ! यदि आज नहीं चेते तो , ये दुर्लभ मनुष्यभव , उत्तमकुल , जिनशासन का समागम यूँ ही व्यर्थ चला जायेगा। यानि हम सच्चे सुख से कोसों दूर चले जायेंगें।
आज हम एक संकल्प और करें कि जिनवाणी का बहुमान करते हुये , जीर्ण-शीर्ण जिनवाणी को संरक्षित और सुव्यवस्थित करेंगें। प्रतिदिन जिनवाणी का श्रवण करेंगें , मनन करेंगें , और जीवन में धारण करने का पुरूषार्थ करेंगें , तभी हमारा श्रुतपंचमी-पर्व मनाना सार्थक होगा।
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