संसारिक आसक्ति और उसका परिणाम*

 जिसे हम सर्वाधिक प्रेम करते है। जिससे अथाह लगाव और मोह होता है। जिससे स्नेह के तार जुड़े होते है, उसे खोने पर ही हमें सबसे अधिक दुःख होता है। हम टूट कर बिखर जाते है। ऐसा लगता है जीवन मे सिर्फ निराशा और अंधकार ही व्याप्त हों गया 

गीता में कृष्ण जी ने कहा है - "कर्म करते रहो, लेकिन आसक्त मत होओ, बंधन में मत पड़ो। कितनी भी प्यारी वस्तु हों या रिश्ता, चाहे उसके प्रति कितना भी मोह क्यों न हों, उसे खोने पर चाहे कितना भी दुःख क्यों न हों?,उसे त्यागने की शक्ति मन मे विकसित करों।" 


 *आओ कहानी सुने* 


*संसारिक आसक्ति और उसका परिणाम*


पुराणों में एक कथा है, जिसमें एक बहुत ही पहुॅचे हुये संन्यासी का उल्लेख है। वह जंगल में एकांत में रहकर ईश्वर प्राप्ति हेतु तपस्या करता था। एक दिन, कोई एक भक्त व्यापारी उनकी कुटिया में ठहरा और उनके सेवा-भाव से प्रसन्न होकर जाते समय उन्हें एक काफी महंगा, सुंदर और कोमल कम्बल भेंट में दे गया।


संन्यासी को वह कम्बल अत्यंत प्रिय हो गया। वह उसे बार-बार निहारता और छूता रहता। धीरे-धीरे उनका मन उस कम्बल में इतना रम गया कि उसकी चिंता उन्हें सताने लगी। कहीं यह खराब न हो जाए, गंदा न हो जाए, या कोई इसे चुरा न ले—यह विचार हर समय उनके मन में बना रहता।


समय बीतने के साथ, उस कम्बल के प्रति उनका लगाव इतना बढ़ गया कि उनका ध्यान ईश्वर से हटकर केवल कम्बल पर केंद्रित हो गया। जिस प्रेम और समर्पण से वह पहले परमात्मा का स्मरण करते थे, अब वह स्थान कम्बल ने ले लिया।


कथा में आगे का वर्णन आता है आखिरकार, जब संन्यासी के जीवन का अंत आया, तो उनके मन में आखिरी विचार भी उसी कम्बल का था। परिणामस्वरूप, अगले जन्म में वह पतंगा (कपड़े का कीड़ा) बनकर जन्मे। जब तक कीड़ों द्वारा खाकर वह कम्बल पूर्णतः नष्ट नहीं हुआ, तब तक वह पतंगे के रूप में सौ जन्मों तक पुनः जन्म लेते रहे।


 *कथा से सीख* : संसारिक वस्तुओं में आसक्ति मनुष्य को उसके लक्ष्य से भटका सकती है। ईश्वर ने संसार की वस्तुओं का निर्माण हमारी सुविधा और आनंद के लिए किया है, परंतु उनका अत्यधिक लगाव और आसक्ति हमें आत्मिक विकास के मार्ग से दूर कर देती है।


इसलिए, हमें अपने जीवन में स्थायी सुख और शांति के लिए अपनी प्राथमिकताओं को समझना चाहिए और परमात्मा को सर्वोच्च स्थान देना चाहिए।

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Milan Tomic

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