वसन्त पञ्चमी पर्व का जैनधर्म में स्थान
*वसन्त पञ्चमी पर्व का जैनधर्म में स्थान : एक अनुचिंतन*
भारतीय संस्कृति और परम्परा में अनेक पर्व हर्षोल्लास पूर्वक मनाये जाते हैं । धार्मिक पर्वों में ईश्वर की आराधना के लिए अनेक अनुष्ठान और आत्मशुद्धि के अनेक उपक्रम किये जाते हैं ।
प्रत्येक धार्मिक पर्व का अपना एक विशिष्ट महत्त्व है और प्रत्येक धार्मिक पर्व का किसी न किसी धर्म और पन्थ सम्प्रदाय से विशेष सम्बन्ध रहता है ।
वसन्त पंचमी पर्व का वैदिक हिंदू धर्म में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है । वैदिक पुराणों और शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि इस दिन सरस्वती देवी का अवतरण हुआ था । इस दिन सरस्वती देवी की विशेष पूजा आराधना बड़े ही हर्षोल्लास से की जाती है । संस्कृत साहित्य में भी उल्लेख प्राप्त होता है की वसंत ऋतु में वसंत उत्सव मनाया जाता था जिसमें कामदेव की पूजा अर्चना की जाती थी ।
वसंत पंचमी पर्व का जैन धर्म में भी क्या कोई स्थान है ? जब हम इस प्रश्न के समाधान की दृष्टि से चिंतन करते हैं तब हमारे समक्ष कुछ तथ्य उपस्थित होते हैं -
1.जैन धर्म के पुराणों और शास्त्रों में वसंत पंचमी पर्व का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है और साथ ही इस तिथि से जुड़े हुए किसी व्रत आदि का भी उल्लेख प्राप्त नहीं होता है ।
2. जैन शास्त्रों में जिनवाणी या तीर्थंकरों की देशना को श्रुत कहा गया है इसके अन्य नाम सरस्वती, वाग्देवी, भारती आदि भी प्राप्त होते हैं लेकिन जैन परंपरा में आगम या श्रुत अनादि निधन है इस युग में आगम का प्रथम उपदेश प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने दिया था और अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को प्रथम उपदेश दिया था इस पर्व को जैन धर्म में वीर शासन जयंती के नाम से मनाया जाता है । जैन शास्त्रों में सर्वप्रथम आचार्य धरसेन से उपदेश प्राप्त करके आचार्य पुष्पदंत और भूतबलि जी ने प्राकृत भाषा में ग्रन्थराज षट्खंडागम जी का लेखन कार्य किया था और जिस दिन यह लेखन कार्य पूर्ण हुआ था उस पवित्र तिथि ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी को श्रुत पंचमी पर्व के रूप में मनाया जाता है । यदि किसी विशेष तिथि से जिनवाणी या सरस्वती का जन्म स्वीकार करते हैं तो फिर जिनवाणी को अनादिनिधन मानने की मान्यता खंडित होती है ।
3. कुछ विद्वान् कहते हैं कि वसंत पंचमी के दिन माघ शुक्ल पंचमी को जैनधर्म के महान् आचार्य कुंदकुंद का जन्म हुआ था इस संबंध में यह विचार करना चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने इस घटना से वसंत पंचमी पर्व को मनाने का कहीं उल्लेख नहीं किया है और न ही ऐसा कोई पुष्ट प्रमाण प्राप्त होता है कि आचार्य कुंदकुंद भगवन् का जन्म माघ शुक्ल पंचमी को हुआ था ।
4. जैन परंपरा के सभी धार्मिक पर्वों का उल्लेख जैन शास्त्रों में स्पष्ट किया गया है और इनका उद्देश्य भी स्पष्ट है ।
5. अन्य परंपरा के पर्वों को सामाजिक सौहार्द की दृष्टि से आदर से देखना चाहिए या उनके प्रति अपना समभाव रखना चाहिए लेकिन हमें किसी भी प्रकार अपनी और अपने धर्म की मौलिकता समाप्त नहीं करनी चाहिए ।
सभी विद्वानों से विनम्र आग्रह है की यदि इस संबंध में जैन शास्त्रों में कोई प्रमाण प्राप्त होते हैं तो लेखक को अवश्य अवगत कराने की कृपा करें जिससे इस लेख में परिवर्तन किया जा सके क्योंकि इसे अभी पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ नहीं भेजा गया है । साथ ही समाज को इस प्रकार की प्रवृत्ति से बचने की प्रेरणा देनी चाहिए जिनसे जैन सिद्धांतों और परंपराओं को हानि पहुंचती है ।
लेखक-डॉ.पंकज जैन शास्त्री
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