भगवान महावीर स्वामी के समकालीन मगध के कपिलवस्तु नरेश शुद्धोधन का पुत्र गौतमबुद्ध नामक राजकुमार हुआ। जिसने वैदिक पशु यज्ञ के विरुद्ध अहिंसा के प्रचार की भावना से संसार से विरक्त होकर राजपाठ एवं लघु पुत्र तथा पत्नी का त्याग कर पलाश नगर में भगवान पार्श्वनाथ की शिष्य परंपरा के पिहितास्रव नामक दिगम्बर जैन मुनि से दिगम्बर जैन मुनि दीक्षा ली थी तब आपका नाम “बुद्ध कीर्ति” रखा गया था किन्तु बाद में भूख को सहन न करने के कारण आप जैन मुनि दीक्षा से विचलित हो गये-अतः आपने गेरुआ वस्त्र पहिनकर मध्यम मार्ग अपनाया, तब आपका नाम “महात्मा बुद्ध” प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ इस विषय में आचार्य श्री देवसेन ने लिखा है कि-
सिरिपासणाहतित्थे सरयूतीरे पलासणयरत्थो ।
पिहियासवस्स सिस्सो महासुदो बुड्ढकित्तमुणी ।।
तिमिपूरणासणेहिं अहिगयपबज्जाओ परिष्भहो ।
रत्तंबरं धरित्ता पवहियं तेण एयंतं ।।
अर्थ :- श्री पार्श्वनाथ भगवान के तीर्थकाल में (भगवान महावीर के धर्म प्रचार होने से पहले) सरयू नदी के किनारे पलाश नगर में विराजमान श्री पिहितास्रव मुनि का शिष्य बुद्धकीर्ति मुनि हुआ। वह मरी हुई मछली के मांस को निर्दोष समझकर खा जाने से साधुचर्या से भ्रष्ट हो गया। तब उसने (अपना नग्न वेश छोड़कर) लाल कपडे पहन लिये और क्षणिक एकान्त मत (बौद्धमत) की स्थापना की।
इस बात को बौद्ध ग्रंथ में वे स्वयं लिखते हैं कि मैं पहिले
अचेलको होमि…. हत्थापलेखना…. नामिहंत न उद्दिस्सकतं न निमंतणं सादियामि, सो न कुम्भीमुखा परिगण्हामि, न कलोपि मुखा परिगण्हामि, न एलकमंतरं न दण्डमंतरं न मुसलमंतरं, न द्विन्नं भंज मानानं न गब्भनिया, न पायमानया न पुरिसंतरगताम्, न संकित्तिस न यथ सा उपठितो होति, न यथ भक्खिका संड संड चारिनी, न मच्छं न मासं न सुरं न भरेयं न थुसोदकं पिवामि सो एकागारिको वाहोमि, एकालोपिका, द्वागारिको होमि द्वालोपिको सत्तागारिकोवा होमि सत्तालोपिको, एकाहं व आहारं आहारेमि द्वीहिकं व आहारं आहारेमिसत्ताहिकम्पि आहारं आहारेमि । इति एयरूपं अद्धमासिकंपि परियाय मत्तभोजनानुयोगं अनुयुतो विहरामि… केस्स मस्सुलोचको विहोमि केसयस्सु लोचनानुयोगं अनेयुत्तो यावउद विन्दुम्हि पिमे दया पच्च पठिताहोति । माहं सुद्दके पाणे विसमगते संघातं आयादेस्संति ।” { मज्झिम निकाय महासीद नाद का 12वां सूत्र }
अर्थ :- मैं वस्त्र रहित रहा, मैंने आहार अपने हाथों में किया। न लाया हुआ भोजन लिया, न अपने उद्देश्य से बना हुआ लिया, न निमंत्रण से जाकर भोजन किया, न बर्तन से खाया, न थाली में खाया, न घर की ड्योढी में खाया, २ खिड़की से लिया, न बच्चे को दूध पिलाने वाली से लिया, न भोग करने वाली से लिया, न मलीन स्थान से लिया, न वहाँ से लिया जहाँ कुत्ता पास खड़ा था, न वहाँ से लिया जहाँ मक्खियां भिनभिना रहीं थी, न मछली, न मांस, न मदिरा, नअंडा खाया, न तुस-का मैला पानी पिया। मैंने एक घर से भोजन लिया, सो भी एक ग्रास लिया, या मैंने दो घर से भोजन लिया सोभी दो ग्रास लिये। इस तरह मैंने सात घरों से लिया, सो भी सात ग्रास एक घर से एक ग्रास लिया। मैंने कभी दिन में एक दफे भोजन किया, कभी पन्द्रह दिन भोजन ही नहीं किया। मैंने मस्तक दाढी व मूछों के केशलोंच किये। उस केशलोंच की क्रिया को चालू रक्खा। मैं एक बूंद पानी पर भी दयालु रहता था। क्षुद्र जीव की हिंसा भी मेरे द्वारा न हो, ऐसा मैं सावधान था।
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